आ अब लौट चले || जब स्मृति में कौंधता है अपना गाँव , अपने लोग ..||

सब कुछ मिला है शहर में | अच्छी शिक्षा , अच्छा खाना , अच्छा पहनावा और बेहतर जिंदगी , पर साथ ही है कुछ छुट जाने की कसक भी | अपनी मिटटी , अपनी जुडो से दूर होने की यह कसक और टीसती है , जब स्मृति में कौंधता है अपना गाँव , अपने लोग ...........

बारिश में भर जाते है नहर , पोखर, तालाब | इनमे एक साथ नहाते हुए बच्चे , बकरिया और भैस ,धुल में सने पैर लिए चौराहे या बैलगाड़ी पर सुस्ताते ग्रामीण ........ खेतो में उपलों पर थापी रोटी के साथ प्याज खाते लोग ....
एक भीनी सी खुशबु  फैली होती है चारो ओर ......| गाँव को याद करके सहसा ऐसी तस्वीरे जेहन में तैरने लगती है |एक जैसी सुबह  , एक तरह की शाम और एक रस होती  जा रही शहरी जिंदगी में नवरंग भरती  है ये तस्वीरे | ऊची -ऊची इमारतो , फ्लेट्स और शहर में बने आलिशान मकानों में वैसे जुड़ नहीं पाते हम , जैसा जुडाव होता है सालो से खड़े अपनी मिटटी , अपनी जमीं पर बने टूटे , जर्जर हो चुके दो कमरों वाले घर से |

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